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स॒म्राजो॒ ये सु॒वृधो॑ य॒ज्ञमा॑य॒युरप॑रिह्वृता दधि॒रे दि॒वि क्षय॑म् । ताँ आ वि॑वास॒ नम॑सा सुवृ॒क्तिभि॑र्म॒हो आ॑दि॒त्याँ अदि॑तिं स्व॒स्तये॑ ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

samrājo ye suvṛdho yajñam āyayur aparihvṛtā dadhire divi kṣayam | tām̐ ā vivāsa namasā suvṛktibhir maho ādityām̐ aditiṁ svastaye ||

पद पाठ

स॒म्ऽराजः॑ । ये । सु॒ऽवृधः॑ । य॒ज्ञम् । आ॒ऽय॒युः । अप॑रिऽह्वृताः । द॒धि॒रे । दि॒वि । क्षय॑म् । तान् । आ । वि॒वा॒स॒ । नम॑सा । सु॒वृ॒क्तिऽभिः॑ । म॒हः । आ॒दि॒त्यान् । अदि॑तिम् । स्व॒स्तये॑ ॥ १०.६३.५

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:63» मन्त्र:5 | अष्टक:8» अध्याय:2» वर्ग:3» मन्त्र:5 | मण्डल:10» अनुवाक:5» मन्त्र:5


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (ये) जो (सम्राजः) ज्ञान से सम्यक् प्रकाशमान (सुवृधः) उत्तम गुणवृद्ध (अपरिह्वृताः) कामादि से अविचलित या विचलित न होनेवाले (यज्ञम्-आययुः) अध्यात्मयज्ञ या यज्ञरूप सङ्गमनीय परमात्मा को साक्षात् किये हुए हैं या करते हैं (दिवि क्षयं दधिरे) मोक्षधाम में निवास धारण करते हैं या धारण करने योग्य हैं (तान्-आदित्यान्) उन अखण्डित ज्ञान ब्रह्मचर्य से युक्त हुओं की (नमसा सुवृक्तिभिः) उत्तम अन्न आदि भोग से या शुभ प्रशंसाओं से (अदितिं स्वस्तये-आविवास) अखण्डित कल्याणस्वरूप मुक्ति के लिए सेवा सङ्गति कर ॥५॥
भावार्थभाषाः - जो ज्ञानवृद्ध और गुणवृद्ध तथा कामादि दोषों से रहित मोक्ष के अधिकारी जीवन्मुक्त महानुभाव हैं, उनकी सङ्गति करनी चाहिए अपनी कल्याण कामना के लिए ॥५॥